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गाँव में पड़ी सालों पुरानी साइकिल को देखकर पिताजी ने कहा ये साइकिल यहाँ से हटा देनी चाहिए, बस यूँ ही जगह ले रहा है और इसे अब कोई चलाने वाला नहीं है, इसलिए बेहतर है किसी को दे देते हैं। हम दोनों भाई थोड़ी देर के लिए एक दूसरे को देखते रहे और सोचने लगे कि साइकिल का क्या करना चाहिए। बचपन की इतनी यादें जुड़ी थी उस साइकिल से कि हमारा दिल उसे किसी और को देने के लिए राज़ी ही नहीं हो रहा था। भैया ने साइकिल को उठाकर घर के पीछे तरफ़ बने छप्पड़ वाले कमरे में रख दिया जहाँ घर का पुराना सामान और लकड़ियाँ रखी हुई थी।
उन दिनों गाँव में मोटर-साइकिल होना ही बहुत बड़ी बात थी और मेरे ख़्याल से इक्का दुक्का गिने चुने लोगों के पास ही हुआ करती थी। ऐसे में अगर आप किसी से साइकिल माँग लेते थे तो ऐसा लगता था जैसे उसकी कोई बहुत क़ीमती चीज़ माँग ली गयी हो।
प्राथमिक कक्षा की पढ़ाई ख़त्म होने के साथ ही भैया ने माँ और दादी से साइकिल की ज़िद शुरू कर दी। पिताजी को भी एक बार चिट्ठी में लिखा था जिसमें उन्होंने मेरे लिखने की जगह में भी ये विस्तार से लिखा था कि हमें साइकिल की ज़रूरत क्यों है। साल भर निरंतर माँगते रहने के पश्चात अंततः वो दिन आ ही गया। शहर से ऐट्लस की नयी चमचमाती साइकल हमारे घर आयी थी। उसके नीचे अपने पसंदीदा फ़िल्म सितारे का धूल अवरोधक लगवाया था। एक सुंदर सा कैरीअर भी था जिसपर अपना स्कूल बस्ता रख सकते थे। रंगीन स्टिकर से उसके तीनों लोहे के मजबूत डंडे पर नाम लिखा हुआ था और उसके आगे एक गोल छोटा सा कम्पनी का प्रतीक बना था जो इसे अपने आप में नायाब बना रहा था।
पहले ही दिन स्कूल जाते वक़्त कच्ची सड़क पर भैया का नियंत्रण छूट गया। शायद हमारी उम्र के हिसाब से साइकल थोड़ी बड़ी थी। भैया ने बहुत सँभालने की कोशिश की लेकिन मेरे सर में चोट आ गया और मैं बेहोश हो गया। उस दिन भैया बहुत रोए थे मेरे लिए। ऐसी बात नहीं थी की हम आपस में नहीं झगड़ते थे लेकिन हमारे रिश्ते के सामने कितनी ही महँगी और निर्जीव वस्तुएँ अक्सर हार जाया करती थी।
साइकिल को भैया बहुत ज़्यादा चाहते थे और अगर कभी कोई माँग कर ले जाता था तो बिना खाए पिए उस व्यक्ति का इंतज़ार करते थे जब तक वो साइकिल लौटा ना दे। दिन में तीन चार बार साफ़ करते थे और मजाल है कि उसपर कोई खरोंच भी आ जाए। उसी समय मैंने भैया की कठोर निगरानी में साइकिल चलाना सीखा। अगर कभी ग़लती से साइकिल के पहिए में कीचड़ लग जाती थी तो चपत भी लगा देते थे। दरअसल मैं भी साइकिल लेकर फ़िल्मी कलाबाज़ियाँ दिखाने की कोशिश करने लगता था। क्या करें सपनों में खोने की आदत बचपन में ही लग गयी थी। आज के बच्चे वैसी साइकिल चलाना तो दूर उसकी तरफ़ देखें भी नहीं।
आज 200 मीटर की दूरी पर दफ़्तर जाने के लिए कार से निकलते हैं और एक वक़्त था जब साईकिल से मीलों घूम आया करते थे। महँगी कार में भी घूमने में वो मज़ा नहीं आता जो भैया के साथ साइकिल की सवारी में आती थी।
मैंने साइकिल को ग़ौर से देखा। उसके आगे का कम्पनी वाला प्रतीक काला पड़ गया था लेकिन अभी भी मौजूद था, उसकी चेन जंग लगने से कड़े हो गए थे और उसके स्टिकर आज भी कहीं कहीं बाक़ी थे। देखो तो ऐसा लगता था अब बस किसी संग्रहालय में ले जाकर रख देना चाहिए। लेकिन इतनी सुनहरी यादें हैं उस साइकिल के साथ हमारी, विद्यालय जाने से लेकर ज़िले के प्रसिद्ध सिनेमा थिएटर में फ़िल्म देखने तक, ऐसा लगता है हम आज भी उससे जुड़े हुए हैं। हमारी साइकिल पुरानी हो गयी है, लेकिन उसे किसी को देने का भावनात्मक सौदा आज भी हम दोनो भाइयों के लिए कर पाना मुश्किल है!!!
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